कविता – पागल
देखा आज एक इंसान को मैंने ,
खुद से ही बातें करते हुए ,
कभी हंसते ,कभी गाते ,कभी रो रो के आहें भरते हुए….
देख कर उसकी हालत ऐसी,
मन में प्रश्न से चलने लगे ,
राहगीर मुझे जैसे ,वहीं पर ,
रुक कर बातें करने लगे…
कोई कहता इसके मन पर शायद, वज्रपात कोई हुआ होगा ,
या फिर कोई भयानक हादसा ,
इसके साथ जरूर हुआ होगा….
कोई करता बात पिछले जन्म की ,
बुरे कर्मों का हिसाब हुआ होगा ,
भोग रहा है यह जो दर्द आज ,
पाप इसमें भी कोई किया होगा….
कहते कहते सब बढ़ गए आगे ,
मैं खड़ा रहा वहीं, लिए प्रश्न कई ,
होंगे इसके भी कई रिश्ते नाते,
इसका भी हुआ होगा घर कोई….
कठिन सी है जिंदगी इसकी ,
पतझड़ के जैसे लगने लगी,
ना कोई पता, ना कोई फूल,
पल पल रोज बिखरने लगी ….
इसने भी कभी अपने जीवन में ,
सपनों को प्यार किया होगा ,
मंजिल जिसकी मिले ना मिले ,
रास्ता वह तय किया होगा…
आज बैठा यू राहों में अनजान ,
खुद को मंजिल से जुदा किए ,
पत्थर उठाकर मारे सभी को, जिम्मेदार हो जैसे वह , इस हालत के लिए …
दुनिया ने नाम दिया है पागल ,
उसकी इन हरकतों के लिए,
अविनाश तू भी कह दे कुछ जरा,
कब तक खड़ा रहेगा ,
मन में यू प्रश्न लिए….